भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काहे ले तूँ जात पुछऽ हऽ / उमेश बहादुरपुरी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:38, 9 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उमेश बहादुरपुरी |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काहे ले तूँ जात पूछऽ हऽ भइवा हम तो बाभन ही।
समझऽ हथ हमरा सब सुक्खल पर हम भइया सावन ही।।
जब-जब आग लगल धरती पर हमहीं आग बुझइलूँ।
मर-कट रहल हल भाई-भाई तब हमहीं समझइलूँ।
समझऽ हऽ हमरा तूँ अछूत पर हम तो भइया पावन ही।। काहे ...
जालिम समझऽ हऽ हमरा तूँ खूनी तक समझऽ हऽ।
एकरो से जादे हमरा तूँ शोषक पुश्तइनी समझऽ हऽ।
हिअइ राम के वंशज हम न´् हम तो भइया रावण ही।। काहे ....
उगलाबऽ ही हीरा-मोती चीर के धरती के सीना।
लौह-पौरुष पिघलाबऽ ही बहाके खून-पसीना।
खुद्दे पियासल रहके, हम तो पिआस बुझाबन ही।। काहे ....
केकरो से भी लटर-पटर न´् न´् केकरो से खटर-पटर।
घुनुर-घुनुर बतियाबऽ ही न´् करऽ ही न´् फटर-फटर।
तूँ हमरा जे समझऽ पर हम तो भइया मन-भावन ही।। काहे ....
दिनकर अउ दिवाकर हम, सहजानंद सरस्वती हिअइ।
कहँय प्रभाकर भास्कर, हम पोरुष के बलवती हिअइ।
सब हमरा दागी समझऽ हऽ उज्जर हम तो दामन ही।।