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सार्थकता / मृत्यु-बोध / महेन्द्र भटनागर

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जीना-भर

जीवन-सार्थकता का

नहीं प्रमाण,

जीना —

मात्र विवशता

जैसे - मृत्यु ..... प्रयाण।


जो स्वाभाविक

उसके धारण में

कोई वैशिष्ट्य नहीं,

संज्ञा

प्राणी होना मात्र

मनुष्य नहीं।


मानव - महिमा का

उद्‌घोष तभी,


मन में हो

सच्चा तोष तभी —

जब हम जीवन को

अभिनव अर्थ प्रदान करें,

भरे अँधेरे में

नव - नव ज्योतिर्लोकों का

संधान करें।



सृष्टि-रहस्यों को ज्ञात करें,

चाँद-सितारों से बात करें।

परमार्थ

हमारे जीने का लक्ष्य बने,

हर भौतिक संकट

पग-पग पर भक्ष्य बने।


इतनी क्षमताएँ

अर्जित हों,

फिर,

प्राण भले ही

मृत्यु समर्पित हों,


कोई ग्लानि नहीं,

कोई खेद नहीं,

इसमें

किंचित मतभेद नहीं,


जीवन सफल यही

जीवन विरल यही

धन्य मही !