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मृग-तृषा / महेन्द्र भटनागर

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उच्छृंखल और महत्त्वाकांक्षी

मानव

धन के पीछे भाग रहा है

सुख के पीछे भाग रहा है

जीवन की क़ीमत पर।

आश्चर्य अरे

इस अद्भुत दूषित नीयत पर !


जीवन है तो / धन-योग बनेगा,
जीवन है तो / सुख-भोग सधेगा !
खंडित और विशृंखल जीवन
रोग-ग्रस्त / हत घायल जीवन
क्षण-भंगुर
मृत्यु-कुण्ड में
गिरने को आतुर !


अंधा, संभ्रम, अज्ञानी

मानव

धन ही वर्चस्व समझ रहा है

सुख को सर्वस्व समझ रहा है !


बहुमूल्य मिला जो जीवन / धो बैठेगा,

जीवन की नेमत / खो बैठेगा !