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स्वस्थ-दृष्टि / महेन्द्र भटनागर
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स्वयं को
शाश्वत समझ कर
जीते हैं,
निश्चिन्त
हँसते और गाते हैं,
बेफ़िक्र
खाते और पीते हैं;
जीना
क्या इसे ही
हम कहें ?
अंत से
जब रू-ब-रू हों,
अन्यथा
अनभिज्ञ ही उससे रहें,
क्या
जीना इसे ही
हम कहें ?