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मैं बनाता तुझे हमसफ़र ज़िंदगी / समीर परिमल
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मैं बनाता तुझे हमसफ़र ज़िंदगी
काश आती कभी मेरे घर ज़िंदगी
मेरे ख़्वाबों के भी पाँव जलने लगे
बनके दरिया नज़र में उतर ज़िंदगी
हर घड़ी आदमी ख़ुद में मरता रहा
इस तरह कट गई बेख़बर ज़िंदगी
हम फ़क़ीरों के क़ाबिल रही तू कहाँ
जा अमीरों की कोठी में मर ज़िंदगी
तू गुज़ारे या जी भर के जी ले इसे
आज की रात है रात भर ज़िंदगी