भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं बनाता तुझे हमसफ़र ज़िंदगी / समीर परिमल

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:18, 14 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=समीर परिमल |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं बनाता तुझे हमसफ़र ज़िंदगी
काश आती कभी मेरे घर ज़िंदगी

मेरे ख़्वाबों के भी पाँव जलने लगे
बनके दरिया नज़र में उतर ज़िंदगी

हर घड़ी आदमी ख़ुद में मरता रहा
इस तरह कट गई बेख़बर ज़िंदगी

हम फ़क़ीरों के क़ाबिल रही तू कहाँ
जा अमीरों की कोठी में मर ज़िंदगी

तू गुज़ारे या जी भर के जी ले इसे
आज की रात है रात भर ज़िंदगी