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मुहब्बत की निशानी को कुचल कर / समीर परिमल
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मुहब्बत की निशानी को कुचल कर
वो ख़ुश हैं इक कहानी को कुचल कर
ये दहशत की जो आँधी चल रही है
रुकेगी ज़िन्दगानी को कुचल कर
करेंगे शुद्ध गंगा को लहू से
सभी आँखों के पानी को कुचल कर
भला क्या झूठ काबिज हो सकेगा
हमारी सचबयानी को कुचल कर
क़लम की धार पैनी हो रही है
तुम्हारी बदगुमानी को कुचल कर