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किसी की सरफ़रोशी चीख़ती है / समीर परिमल

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किसी की सरफ़रोशी चीख़ती है
वतन की आज मिट्टी चीख़ती है

हक़ीक़त से तो मैं नज़रें चुरा लूँ
मगर ख़्वाबों में दिल्ली चीख़ती है

हुकूमत कबतलक ग़ाफ़िल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीख़ती है

ग़रीबी आज भी भूखी ही सोई
मेरी थाली में रोटी चीख़ती है

बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आँगन में तितली चीख़ती है

भुला पाती नहीं लख़्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीख़ती है

फ़क़त अल्फ़ाज़ मत समझो इन्हें तुम
हरेक पन्ने पे स्याही चीख़ती है

रहूँ ख़ामोश तो रोता है ये दिल
ग़ज़ल कहने वे बीवी चीख़ती है

जिसे तू ढूँढने निकला है 'परिमल'
तेरे सीने में बैठी चीख़ती है