वे सांत्वना-दाता / रुडयार्ड किपलिंग / तरुण त्रिपाठी
{..यह कविता एक अज़ीब विषय पर है.. 'किपलिंग' अवांछित सांत्वना देने आने वाले लोगों को एक दुखी व्यक्ति की वास्तविक स्थिति बताते हैं..}
जब तक तुम्हारे पाँव घिस न दिए हों सड़क
किसी राह-रुके को सलाह मत दो
जब तक तुम्हारी पीठ न सह चुकी हो वह बोझ
उस तबाह पर दस्तक मत दो
सहानुभूति की अवांछित उदारता के साथ
पीछा न करो उस हृदय का
जो, जानते हुए अपनी कड़वाहट
दूर रहने का खयाल रखता है
न लगाओ वह प्रफुल्ल हाथ
उस ईश्वर के भूले व्यक्ति को स्वर्ग तक उठाने में
और उठें उन सारे पड़ोसियों की टकटकी―
अपना मुँह ढँक लो बल्कि
वह काँपती ठोढ़ी, वह कटा होंठ
वह गंभीर और पसीना-तर भौं
फिर कभी हो सकते हैं साहचर्य के आकांक्षी
इस वक्त नहीं, मूर्ख व्यक्ति!, इस वक्त नहीं!
समय, न कि तुम्हारा अति सामयिक भाषण
जीवन, न कि उस पर तुम्हारे विचार
उपस्कृत या वंचित करेंगे
प्रत्येक को उसके सुकून से
या, अगर ज़ब्र किये गए हस्तक्षेप करने को
उपदेश दो, उल्लसित करो, सुझाव दो
न दो एक नीच, दगाबाज कान
पीड़ित के उन सारे विलापों को
केवल प्रभु समझ सकता है
जब वो पहली टीसें शुरू होती हैं
कितना उसमें स्वतः घटित है
और कितना वास्तव में पाप
अच्छे शब्दों से भी खुद का परहेज करो
और सिहरन के साथ स्वीकार करो
कि दर्द का कोई नाशक नहीं है
सिवा इसके सदमे के
ताकि जब तुम्हारा अपना बुरा वक़्त पड़े
निर्विवाद्य तुम कह सको
'मैंने कभी तुम्हें बिलकुल भी तंग नहीं किया
भगवान के लिए दूर चले जाओ'