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घोषणा / महेन्द्र भटनागर

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दुनिया वालों से

कह दो —

अब

महेन्द्रभटनागर सोता है ! चिर-निद्रा में सोता है !


जो

होना होता है;

वह होता है !

रे मानव !

तू क्यों रोता है ?

जीवन

जो अपना है,

उस पर भी

अपना अधिकार नहीं,

घर-धन

जो अपना है

उसमें भी

सचमुच

कोई सार नहीं !

उसके

तुम दावेदार नहीं !


बन कर

मौन विरक्त - विरागी


चल देते हैं

छोड़ सभी,

चल देते हैं

नये-पुराने नाते-रिश्ते

तोड़ सभी !


रे इस क्षण का

अनुभव

सब को करना है,

मृत्यु अटल है

फिर


उससे क्या डरना है ?


ओ, मृत्यु अमर !

तुम समझो चाहे


लाचार मुझे,

उपसंहार मुझे,

स्वेच्छा से

करता हूँ अंगीकार तुम्हें

तन-मन से स्वीकार तुम्हें !


सुखदायी

मिट्टी की शैया पर सोता हूँ !

इस मिट्टी के

कण - कण में मिल कर

अपनापन खोता हूँ !


नव जीवन बोता हूँ !


जैसे जीवन अपनाया

वैसे

हे, मृत्यु

तुम्हें भी अपनाता हूँ !



जाता हूँ,

दुनिया से जाता हूँ !

सुन्दर घर, सुन्दर दुनिया से


जाता हूँ !

सदा ... सदा को

जाता हूँ !