भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी अब अज़ाब लगती है / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:32, 18 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=शाम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जिंदगी अब अज़ाब लगती है
एक टूटा-सा ख़्वाब लगती है
दूर तक सिर्फ़ दर्द का दरिया
चीज़ ये बेहिसाब लगती है
इश्क़ की छू गयी हवा जिसको
हर उमर लाजवाब लगती है
जाम ग़म का उठा लिया जबसे
जामनोशी सवाब लगती है
रौशनी के बिना सभी रातें
तीरगी की किताब लगती है