भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
स्वयंचेत / कीर्ति चौधरी
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:22, 23 मार्च 2019 का अवतरण
घाव तो अनगिन लगे,
कुछ भरे, कुछ रिसते रहे,
पर बान चलने की नहीं छूटी ।
चाव तो हर क्षण जगे,
कुछ कफ़न ओढ़े, किरन से सम्बन्ध जोड़े,
आस जीवन की नहीं टूटी ।
भाव तो हर पल उठे,
कुछ सिन्धुवाणी में समाए, कुछ किनारे,
प्रीति सपनों से नहीं रूठी ।
इस तरह हँस-रो चले हम
पर किसी भी ओर से संकेत की
कोई किरन भी तो नहीं फूटी ।