राजधानी में अपनी एक वर्षगाँठ पर / पंकज सिंह
किसी पाठ्य-पुस्तक में नहीं लिखा था
कि किसी मंगोल विजेता की चमकती आँखों-सी
होती हैं क्रूर और चमकीली राजधानियाँ
किसी अध्यापक ने मुझे नहीं बताया था
कि राजधानी में होते हैं कुछ चमत्कारी मछुए
जो फेंकते हैं हर पाँच साल पर
खेतों और रक्तपायी कारख़ानों की तरफ़
मुहावरों और कभी न पूरे होने वाले सपनों का महाजाल
किसी ने नहीं कहा था
कि यहाँ बच्चों की भूख से फैली हथेलियों के पास
हेसेलब्लाड और लाइकाफ़्लेक्स टिकाए घूमते हैं पर्यटक
मुशहरी के बारूद भरे फलों ने मुझे कभी नहीं कहा था
कि कुछ और फूल हैं जिन्हें ख़ून से सींचा जाता है
और जो खड़े रहते हैं असंग झूमते राष्ट्रपति भवन के बाग में
ख़त्म हुआ एक और साल एक और मैली गाँठ लगी
इस तिलस्मी नगर में
जहाँ से फ़ाइलों में बंद आदेशों के कुल्हाड़े चलते हैं
और किसी जंगम भूमैया किसी किश्ता गौड़ की गर्दन पर
'खच्च' की डरावनी आवाज़ के साथ गिरते हैं
माँ, दिल्ली में बाईस दिसम्बर की इस सांझ में
प्रधानमंत्री के लान पर प्रसन्न मुख फुदक रहे हैं बहुत से विदूषक
बहुत से लेखक पत्रकार बहुत से तारनहार बहुत से देश के रखवार
सीमेन्ट और कंक्रीट की बनी महान आत्माएँ
अशोक होटल के कान्वेशन हाल में
नाचती हुई लड़की की नृत्यलय में
खो-खो जाती हैं हथकड़ियों और बेड़ियों की आवाज़ें
आज रात सोने से पहले, मैं सोचता हूँ, मुझे
ख़ुद को बधाई देनी चाहिए
(रचनाकाल : 1978)