भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बोलती हुई चीज़ें / संजय कुंदन
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:03, 3 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=संजय कुंदन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKav...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
अब चीज़ें आदमी से ज़्यादा
मुखर और सक्रिय थीं
वे इनसान से एक क़दम आगे बढ़कर
फ़ैसले कर रही थीं
हो सकता है आप किसी व्यक्ति से मिलने जाएँ तो
अपने स्वागत में मेजबान से पहले
उसके घर के सोफ़े को हिलता हुआ पाएँ
इस बात की पूरी गुँजाइश है कि वह सोफ़ा ही तय करे कि
आपको मुलाक़ात के लिए कितना वक़्त दिया जाए
और दीवार पर टँगी एक घड़ी यह फ़ैसला करे
कि आपको चाय मिले या पानी पर ही टरकाया जाए
यह काम मेजबान की कमीज़ भी कर सकती है
आपकी कमीज़ का ढंग से मुआयना करने के बाद
वैसे उस व्यक्ति से मिलकर जाने के बाद भी
यह भ्रम बना रह सकता है
कि उसी से मुलाक़ात हुई
या उसके मोबाइल से ।