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शोक-गीत / अलेक्सान्दर पूश्किन / हरिवंश राय बच्चन

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उतर चली यौवन की मदिरा अब तो शेष खुमारी है,
पागल घड़ियों की रँगरलियों की सुधि मन पर भारी है,
सुरा पुरानी जितनी होती उतनी ही मादक होती,
याद पुरानी जितनी होती उतनी ही पातक होती ।

अन्धकारमय मेरा पथ है और भविष्यत् का सागर,
गर्जन करता मेरे आगे बन विपदाओं का आकर;
लेकिन, भाई, मुझे नहीं है फिर भी मरने की अभिलाष,
घटी नहीं मेरी जीवन की, सपनों की, पीड़ा की प्यास ।

मैं चिन्ताओं और व्यथाओं और वेदनाओं के बीच,
सुख के अश्रु-कणों से अपना मुर्झाया मुख लूँगा सींच,
एक बार फिर पागल होकर गाऊँगा मैं स्वर्गिक गान,
एक बार फिर स्वप्न करेंगे मेरे दृग स्रोतों से स्नान ।

औ’ जीवन की अन्तिम बेला आएगी जब पास, उदास,
प्रथम विदा की मुस्कानों से रंजित कर देगा आकाश ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंश राय बच्चन