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यक्ष विकल / सुधा गुप्ता

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14
आषाढ़ सूखा
मेघदूत है रूठा
यक्ष विकल ।
15
उखड़ी साँस
आफ़त का मारा-सा
 घूमे शिशिर ।
16
उड़ी पतंगें
आकाश हुआ दंग
कितने रंग !
17
उमंग-भरी
शाखों पे गिलहरी
उड़न परी ।
18
उमड़ चलीं
बाँध तोड़ नदियाँ
बहाए गाँव ।
19
उषा की माला
टूटी, बिखरे मोती
दूर्वा सहेजे ।
20
एक फ़रिश्ता
फूल पर आ बैठा
जागे हैं भाग ।
21
ओलों की मार
बिजली का चाबुक
डाँट-डपट ।
22
ओस की बूँदें
जमीं, बनी हैं मोती
दूर्वा पिरोती ।
23
ओस नहाई
फूल गजरा धारे
मौलश्री हँसी ।
24
कपड़े फेंक
बन बैठा नीम
नागा संन्यासी ।
25
कबरी खुली
गजरा बिखरा है
निशीथिनी का ।