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थरथराने लगे हैं / मनोहर अभय
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सोनभद्रे! हौले चलो
थरथराने लगे हैं
मकान घाटी के.
ये नहीं हैं दुर्ग ऊँचे
महल चाँदी से मढ़े
ईंट-गारे से चिने
गंवई गाँव के दवड़े
आले-दिवाले में धरे
गणेश माटी के.
बुझाते पसीने से
प्यास श्रम के देवता
खुरदरे हाथ खुरपी फावड़े
तोड़ते खेत की जड़ता
बीत रहे दिन-दुपहर
टूटी खटपाटी के.
आँगने तक चली आईं
भूखी भनभनाती सी
चोटिल नागिनी वैरिन
फन मारती फनफनाती सी
निगल गईं स्वाद सारे
हमारी दालबाटी के.
हम नहीं गन्धर्व उजरे
स्वर्ग से उतरे
मनुज माटी के बने
मनुजता ढूँढ़ने निकरे
रास्ते रोको नहीं
चौड़ी चौपाटी के.
सोनभद्रे! धीमें चलो
तोड़ो नहीं तटबंध
नीरगर्भे मिट न पाएँ
आपसी सम्बन्ध
राग की अनुराग की
लचीली परिपाटी के