भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आग चाहिए / मुरारी मुखोपाध्याय / कंचन कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:20, 18 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मुरारी मुखोपाध्याय |अनुवादक=कंच...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मुहब्बत में चान्द मत बनो
बन सको तो सूरज बनकर आओ,
मैं उससे उत्ताप लेकर
अन्धेरे के जंगल में आग लगा दूँगा ।
मुहब्बत में नदी मत बनो
बन सको तो बाढ़ बनकर आओ,
मैं उस आवेग को बहाकर
निराशा के बान्ध तोड़ दूंगा ।
मुहब्बत में फूल मत बनो
बन सको तो वज्र बनकर आओ,
उसकी गड़गड़ाहट को सीने में सँजोए
मैं लड़ाई की ख़बरें दिशाओं में फैलाऊँगा ।
मुहब्बत में पंछी मत बनो
बन सको तो तूफ़ान बनकर आओ,
उस ताक़त के बूते पर मैं
पाप का महल ढहा दूँगा ।
चान्द, नदी, फूल, तारे, पँछियों पर
कुछ दिन के बाद गौर करेंगे
अन्धेरे में आख़िरी लड़ाई अभी बाक़ी है
अभी आग चाहिए हमारी इस कुटिया में ।
1975
मूल बांग्ला से अनुवाद : कंचन कुमार