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आत्म-कथा / महेन्द्र भटनागर
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क्या जीता हूँ !
अनुदिन कड़वाहट पीता हूँ,
मधु का सागर लहराता हैµ
पर,
कितना रीता हूँ !
सचमुच,
क्या जीता हूँ ?