भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बर्फीली आग / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:37, 23 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
मैं बर्फीली चट्टान हूँ लेकिन ठंडा नहीं हूँ
हर जुल्म का गवाह हूँ, पर अंध नहीं हूँ
गुलामी में सामंतों से, लड़ना नहीं छोड़ा
फिर अछूत की बेड़ी से, क्यों छूटा नहीं हूँ?
बाजार में मेरा वजूद, नीलाम क्या होगा?
बुरे दौर में भी जब, खुदी को बेचा नहीं हूँ
मेरे वजूद की सरहद, वे नाप नहीं सकते
लेकिन समझने वालों को, रोका नहीं हूँ
मेरा उगता सूरज, उनकी नज़र में ढलता है
मगर ऐसा गिरकर, कभी मैं सोचा नहीं हूँ
दुनिया से मिला न कुछ, इज्जत का मुकाम
मैं रवां हूँ दरिया सा लेकिन गंदा नहीं हूँ
दुनिया का सारा दर्द, दलितों के नाम क्यों है?
कभी जातिवादी पेड़, तो मैं रोपा नहीं हूँ?
कई अफवाहों से भी, रोज इल्जाम लगते हैं
दलित ‘बाग़ी’ न होंगे, ऐसा मैं सोचा नहीं हूँ