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यातना की चीख़ें / बाल गंगाधर 'बागी'

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पड़ी माथे की झुर्रियां कुछ और नहीं हैं
जो घुटनों में दब करके बौन नहीं हैं
देखो अनन्त प्रश्नों की तरंगों के जैसे
निरन्तर मिलकर ये मौन नहीं हैं

इस काया में सदियों का, संताप समाहित है
लड़खड़ाती निगाहों में, अपमान समाहित हें
कितने लहूलुहान मृत हैं, आंख के पन्नों पर
इसमें गुलाम पूर्वजों की, चीखे़ं समाहित हैं

पैरों में कांटे और धूप की आग में जलकर
पीठ से खींचते झाड़ू मटका गले में लेकर
चमड़ी उधेड़कर बेगार में खूब थे खटते
तड़पे अपमान भूख की चिता में जलकर

सारा जीवन रोटी के बदले मांस खाते थे
गुलाम रहकर बूढ़े अंतिम संास गिनते थे
गेहूँ की तरह चक्की में बस उनको पिसना था
सड़े मांस खाये बीमारी की आग में जलना था