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मैं कौन हूँ / बाल गंगाधर 'बागी'

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कितनी खिड़कियां झांकी, दरवाजे बोलते हैं
सरगोशियां सुनाती हैं, मैं अजनबी कहाँ का?
अपने ही शहर में क्या ख़ामोश देखता हूँ?
गालियां पुकारती हैं, मैं अजनबी कहाँ का

बिजली की झुरमुटें व सीटी भी गाड़ियों की
नुक्कड़ निहारते हैं, बे घर सा हूँ कहाँ का?
आखिर देखते नहीं क्यों हालत से हटके मेरे
कांटों के बाग में यहाँ, सैलानी हूँ कहाँ का?

हालात के थपेड़ों ने मुझे चलना सिखा दिया
लेकिन रोड़े बन खड़े हैं, सांसों की हवा का
कई आंखों में गिर कर भी उठ जाता हूँ
कुछ नज़र को भाता नहीं रास्ता समता का

वह सूप-सी आंखों से, क्यों हमें हैं छांटते
और ज़मी पे फेंकते हैं, पाई समझ हवा का
तन्हाईयों के दौर में उठाना है भार अपना
वर्ना बर्बाद ना होता, गुल गुलिस्ता का