भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारा अन्त देखने के लिये / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:48, 23 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारे बुजुर्ग तुम्हारे बच्चों को नमन करते हैं
ऊपर से डांट और गालियां भी सुनते हैं
यह सिलसिला आज भी जारी है...
क्योंकि तुम्हारी जातीयता से डरते हैं

तुम्हारे घर जाने पर
हमें बैठने को कुछ नहीं देते
रे-टे कहते हो क्यो?
इज्जत नहीं करते
हमारे घर तुम जब भी आये
रिश्तेदार होने के बाद भी
हम हमारे रिश्तेदार
चारपाई से उतर गये

रिश्तेदार से बोलते हो
तू इसका कौन?
बैठा क्यों मौन है?
ये तेरा कौन, कहाँ से आया है?
सुनकर मैं मर जाता हूँ
ज़मीन में धंस जाता है!....
रात बस्ती में आकर, लोगों को जगाते हो
गालियां सुनाते हो, काम पर बुलाते हो
खौफ की चादर ओढ़े
मेरा मोहल्ला श्मशान सा
जलता है बेकार का
औरतों को छेड़ते हो
कपाल क्रिया करते हो...

हमारे साथ अपने बच्चों को खेलने नहीं देते
मेरा बचपन तुम्हें कोढ़ दिखाई देता है
हमें कचरें समझ अछूत कहते हो
तुम्हारी वासना की आग
तुम्हारे मुँह से छलकती है
आंख से टपकती है
आग सी बरसती है
जिसमें हमारी बस्ती जलती है
तुम उसे होलिका दहन समझ
रंगरलियां मनाते हो
हमें दलित होकर जीना
बद से बदतर लगता है
फिर भी हम जिंदा हैं
वह अस्त देखने के लिए
हिमालय की चोटी से
तुम्हारा अंत देखने के लिए....