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माँ / बाल गंगाधर 'बागी'

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मेरी माँ कुपोषित थी, लेकिन
उसने डब्बे का दूध नहीं
अपना खून पिलाया
मेरे हर रोम-रोम को
ममता के आंचल में पिरोया
पसीने से सींचा!
संवेदना के ब्यार से
रूह को संवारती रही
उम्मीद के झरोखे में
नई सुबह होती रही!

दुख के पहाड़ को
पैरों से रौंदकर
नौ महीने तक पेट में ढोकर
भूखी प्यासी कई दिन बहकर
किलकारियां मेरी, मन में संजोकर

पेट में कुछ खाया नहीं
माँ पे गुस्सा खाता हूँ
तड़प रहा हूँ खुद पर कैसे?
खुद पर ही पछताता हूँ
मेरी कितनी निष्ठुर माँ
भोली नहीं गुस्सैली माँ
मैं हूँ इसके पेट में कैसे?
भूखा मुझे रुलाती माँ
जब पैदा में बाहर आया
घर अपना बेहाल पाया
खाने को लाले पड़े थे
भूखी आंत बेजान था पाया
बाहर दुनिया भूखी क्यों?
नंगी नंगी बस्ती क्यों?
झोपड़ी फुटपाथ चीथड़े मंे जीते
क्यों भूखे नंगे लोग हैं मरते