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मैं आह हूँ / बाल गंगाधर 'बागी'

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झरनों के रंग में लहराकर
निर्मली सुमन के चितवन पर
ठंडी समीर बन सांसों में
नाजुक सूरज के लाली सी

मैं आह हूँ उजड़े वादी की
एक ज्वाला हूँ चिंगारी की!

आसमान की छाती पर
एक सर्द आह लपकने की
वेदना की खाई में उसकी
सुलग-सुलग कर जलने की

मैं आह हूँ उजड़े वादी की
एक ज्वाला हूँ चिंगारी की!

अंखियों के झरोखों में देखा
एक भूखी रूह है ममता की
समता की जंग छिड़ी जिसमें
लागी है आग विसमता की

मैं आह हूँ उजड़े वादी की
एक ज्वाला हूँ चिंगारी की!

हुस्न का परचम तेरी वादी
जिसमें है तेरी बर्बादी
रात घनेरी-सी तू उजली
ढलते शाम की लाली-सी

मैं आह हूँ उजड़े वादी की
एक ज्वाला हूँ चिंगारी की!

टपके जो कमल के नयनों से
ओस नहीं वह आंसू भी
लेकिन ये सुर्ख हुए आखिर
बुझी आग के हंसने सी

मैं आह हूँ उजड़े वादी की
एक ज्वाला हूँ चिंगारी की!

पुरवा हवा के छांव तले
अहसास हमारे गाने की
नभ के अंतर में दूर तलक
रागों में राग सुनाने की

मैं आह हूँ उजड़े वादी की
एक ज्वाला हूँ चिंगारी की!