भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आँखों का झरना / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:20, 24 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितनी आंखें टपकती रहीं रात भर
दरबदर आस बढ़ती रही आंख पर...

न उम्मीदों की गलियों में जाना कभी
बे सहारा हैं जो बुरे हालात पर
खिड़कियां झांकती चिलमनों की तरह
अधखुली आंख सी मेरी औकात पर
कितनी आंखें टपकती रहीं रात भर
दरबदर आस बढ़ती रही आंख पर...

जिनकी दमड़ी में कौड़ी नहीं दोस्तों
धूल खाते हैं वे पड़े फुटपाथ पर
गोलियों से जिन्हें नींद आती नहीं
उन अंतड़ियों में भूखों की बरसात पर
कितनी आंखें टपकती रहीं रात भर
दरबदर आस बढ़ती रही आंख पर...

कई कड़ियां हैं उलझी ग़रीबों के घर
सहम जायें हवायें जहाँ आह पर
कुछ लगामों पे बस दौड़ता रह गया
बस वही राहें आती रहीं पांव पर
कितनी आंखें टपकती रहीं रात भर
दरबदर आस बढ़ती रही आंख पर...

ज़मीं से उठो अपनी जगह नाप लो
ये मौसम सुहाना है बस आज भर
देखो ज़ालिम की आंखांे में गम है नहीं
नाप लो उसकी गर्दन को तलवार पर
कितनी आंखें टपकती रहीं रात भर
दरबदर आस बढ़ती रही आंख पर...