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चुपचाप / राकेश रेणु
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बून्दें गिर रही हैं बादल से
एकरस, धीरे-धीरे, चुपचाप ।
पत्ते झरते हैं भीगी टहनियों से
पीले-गीले-अनचाहे, चुपचाप ।
रात झर रही है पृथ्वी पर
रुआँसी, बादलों, पियराए पत्तों सी, चुपचाप ।
अव्यक्त दुख से भरी
अश्रुपूरित नेत्रों से
विदा लेती है प्रेयसी, चुपचाप ।
पीड़ित हृदय, भारी क़दमों से
लौटता है पथिक, चुपचाप ।
उम्मीद और सपनों भरा जीवन
इस तरह घटित होता है, चुपचाप ।