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वही हर्फ़ हैं वही ज़र्फ़ हैं वही रोज़-ओ-शब हैं सराब से / जावेद अनवर
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वही हर्फ़ हैं वही ज़र्फ़ हैं वही रोज़-ओ-शब हैं सराब से
वो मलाहतों का ख़ुमार सा वो मोहब्बतों के सहाब से
न किसी कमान में तीर है न गुलाब हैं किसी हाथ में
मिरे शहर के सभी लोग हैं किसी अजनबी सी किताब से
तिरे बअ'द भी वही ढँग हैं वही नख़्ल-सोख़्ता रँग हैं
वही इन्तिज़ार-ए-तुयूर है वही बर्ग-ए-सब्ज़ के ख़्वाब से
जो कभी ये बाब-ए-अलम खुला थे हर एक हल्क़ा-ए-चशम में
पस-ए-पर्दा-ए-ग़म-ए-दोस्ताँ फ़क़त अपने अपने अज़ाब से
मिरी दोस्ती भी अजीब थी वही आश्ना वही अजनबी
कभी फूल बाइस-ए-ज़ख़्म था कभी सँग भी थे गुलाब से