भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिनगी भेलै बेकार / ब्रह्मदेव कुमार
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:16, 2 मई 2019 का अवतरण
हमरोॅ छोटोॅ टा एक भूल सेॅ, पूरा जिनगी भेलै बेकार।
केना केॅ आबें जीबोॅ हम्मेॅ, आँखी में नै छै नींद हमार।
जानें जखनी की भेलै, हमरोॅ माथा में की घुसलै
पढ़ै-लिखै रोॅ बारे में, कुछु मनोॅ में नै अटलै।
सुनी लेॅ तोंय भगवान, जरलोॅ हमरोॅ कपार।
हम्हीं आपनों मुँहोॅ सेॅ, छीनी लेलियै आपन्हैं मुस्कान
हमरोॅ वास्तें रात आरो दिन, काला अक्षर भैंस समान।
की करबै, केना करबै, केना होतै जिनगी उजियार।
अंत-अंत में हम्हूँ पढ़बै, आरो आपनोॅ हिसाब चुकैबै
पढ़ी-लिखी केॅ शिक्षित बनबै, मिली-जुली केॅ साथें रहबै।
चललै साक्षरता अभियान, देखोॅ बुझोॅ सगरोॅ संसार।