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जहाँ -जहाँ मुझको मिली / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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1
जहाँ -जहाँ मुझको मिली , तेरे तन की छाँव ।
देवालय समझा उसे , ठिठके मेरे पाँव ।।
2
गोमुख से बहती रही, अब तक पावन धार।
आज समझ आया मुझे, वह था तेरा प्यार ॥
3
दरिया उमड़ा प्रेम का, शब्द हुए हैं मूक ।
कहना था जो कब कहा, भाषा जाती चूक ॥
4
लौटे छलिया वे सभी, आए धरकर भेस।
मन-द्वारे तुम आ गए ,रहना अब इस देस॥
5
जितने भी थे गाँठ में, बँधे हुए इल्ज़ाम।
थोपे हम पर वे सभी, जो थे उनके नाम ।।
6
बँधी गले में ही रही, रिश्तों की ज़ंजीर ।
किसने कब समझी कभी,तन की ,मन की पीर।।
7
दो पल हमको थे मिले, दो पल और उधार।
भाग -दौड़ में खो गए,जीवन के दिन चार।।-0-
8
रोम-रोम में बस गई ,उसकी ही तस्वीर।
अनजाने ही मिट गई,युगों- युगों की पीर।
9
माथा उसका चाँद -सा, नयनों में आकाश।
अधरों ने जो छू दिया, कटा पीर का पाश।।
10
रब देना मुझको दुआ, सदा रहूँ मैं पास।
सारे दुख मैं पी सकूँ, उनको देकर हास।।
11
वे वैठे परदेश में ,मन अपना बेचैन ।
दिन कट जाता काम में, काटें कैसे रैन।।
12
भावों की सूखी नदी,तट भी हैं हलकान।
दो बूँदें दो प्यार की,बच जाएँगे प्रान ।।
13
घायल तन, मन मैं लिये, घूम लिया संसार ।
तुम ऐसे घायल मिले,मिला मुझे उपचार ॥
14
आँसू पीकर जी रही, मेरे मन की पीर ।
एक लेखनी ने लिखी, दोनों की तक़दीर ॥
15
जीवन की मुस्कान का,आँसू है इतना इतिहास।
समझ आचमन पी लिये, जितने तेरे पास ॥