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खिड़की / कविता कानन / रंजना वर्मा
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खिड़की
मेरे कमरे की
खुलती है
पूर्व की ओर
जहाँ बहती है
मंथर गति से
मीठी नदी
कलकल क़रतीं हुई
भरती है मन मे
अद्भुत शीतलता ।
खिड़की
जिससे दिखता है
दूर तक फैला
अनन्त आकाश
दूर पर फैले खेत
हवा के झोंकों से
झूमती फसलें
गुनगुन क़रतीं हवा
कह जाती है कानों में
उन्मुक्त बनो
मेरी तरह
मन के अंधेरे कोने में
खोल लो
एक खिड़की
जो दिखाती रहे
संसार का सौंदर्य
जिससे होकर
बाहर की हवा
आ सके
भीतर...।