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क्यों इतना प्यार / सुरेन्द्र स्निग्ध

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क्यों इतना प्यार
परोस रहे हो, दोस्तो !
जैसे दिन के खिले फूल
ढलते सूरज की लाल थाली में
पुरवैये के झोंकों के साथ
उड़ेल देते हैं
ढेर सारी ख़ुशबू

क्यों इतना प्यार
हुगली की लहरों की तरह
मचल रहा है
तुम्हारी आँखों में,
क्यों ये लहरें दौड़-दौड़कर
आ रही हैं
हमारी आँखों तक,
क्यों ये भर रही हैं
जनकवि नागार्जुन की आँखों में
अपूर्व चमक ?

दोस्तो,
हमारे बीच वह कौन-सा है
हावड़ा ब्रिज
जिस पर
भारी भीड़ को चीरता हुआ
सरपट दौड़ता आ रहा है
मज़बूत पुट्ठों वाला प्यार का घोड़ा
हमें ले जाना चाहता है
दुर्गम घाटियों के पार
जहाँ तुम गा रहे हो
मानव-मुक्ति के गीत
लड़ रहे हो निर्णायक लड़ाइयाँ
बनाना चाहते हो
धरती को ख़ूबसूरत
और भी ख़ूबसूरत !

यहाँ से वहाँ तक
तुम बो देना चाहते हो
प्यार के बीज
दुनिया को ख़ूबसूरत बनाने के
सपनों से
चमक रही हैं तुम्हारी आँखें

मैं स्पर्श कर रहा हूँ इस चमक को
और इसकी तरलता में
नहाकर हो रहा हूँ सराबोर
तरोताज़ा, दोस्तो !