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हूक तेरी घाटियों में / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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पल-प्रतिपल
हूक तेरी घाटियों में
टेरती मुझको।
और सब सुधियाँ
मधुरता पान करके
सुनसान पथ में
हेरती मुझको।
रोज़ खुलते
खोखले सम्बन्ध
मेरे सामने,
कौन आता
हाथ मेरा थामने!
बस तुम्हीं ,
जो हर घड़ी
सोचते मुझको;
बस तुम्हीं
अनुगूँज बन जो
खोजते मुझको।
मैं मिलूँगा एक दिन
फिर से तुम्हें
मैं खिलूँगा
उर उववन में तुम्हारे
और खुशबू बन
सरस प्राणों को करूँगा
आत्मा बन मुझे
रहना तुम्हीं में है
मैं तुम्हारे प्राण का हिस्सा
दूर रहकर भी
उजाले द्वार पर
तेरे धरूँगा।