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संवर्त (कविता) / महेन्द्र भटनागर
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पथ का मोड़
भाता है मुझे !
बहुत लम्बी डगर से
ऊब जाता हूँ,
अकारण ही
थकावट की शिथिलता में
न समझे डूब जाता हूँ !
सनातन
एक-से पथ पर
नयापन जब नज़र आता नहीं
मुझसे चला जाता नहीं !
तभी तो
हर नवागत मोड़ का
स्नेहिल
हृदयहारी
भाव-भीना
मुग्ध स्वागत !
इसमें हर्ज़ क्या है —
पथ का मोड़
यदि इतना सुहाता है मुझे ?
पथ का मोड़ भाता है मुझे !