हरेराम समीप के दोहे-2 / हरेराम समीप
दुर्याधन-सा वक्त यह,बोल रहा अपशब्द
मुंह लटकाए हम वहीं, बैठे हैं निस्शब्द
नया दौर समझा रहा मुझको ये किरदार
अनचाहे हंसते रहो राजा के दरबार
संसद की उपमा यही, आज लगे अनुकूल
सोने के गुलदान में, हैं काग़ज के फूल
एक अनुत्रित प्रश्न यह, मेरे रहा समक्ष
बहुमत क्यों इस देश में, बनकर रहा विपक्ष
रुंधे गले से कह रहा, दुखिया अपनी बात
कम सुनकर ज्यादा समझ, तू उसके जज़्बात
वे खाकर उठ जाएँ तब, तू बस प्लेट सकेल
भोजन तेरा भाग्य है,भोजन उनका खेल
महँगाई की मार से, धनिक रहें अनजान
केवल छप्पर घास के, ले जाए तूफान
सोचो आखिर खेत की क्यों सूखी है धान
और हरा कैसे रहा मुखियाजी का लॉन
निरा सत्य मत बोल तू,थोड़ा झूठ लपेट
पास रखो ओरिजिनल, दो फोटो-इस्टेट
हाथों में पत्थर लिए, घूम रही है ऊब
मुस्कानों की खिड़कियाँ, टूटेंगी अब खूब
‘बुढ़उराम’ चिपके हुए, हैं कुर्सी के साथ
बैठा युवा ‘विवेक’ है, धरे हाथ पर हाथ
दास-प्रथा अब भी यहाँ, धनिकों का है शौक़
नगर नगर में बन गए, अब तो ‘लेबर चौक
अपनी सारी क्रूरता, अभिनय बीच लपेट
वो सदियों से कर रहा, औरत का आखेट
कई अहिल्यायें यहाँ, सहें जुल्म की धूप
मिल जाते हैं इन्द्र के, गली-गली प्रतिरूप
बेहद अनुनय, विनय से, लड़की माँगे काम
मालिक उसमें खोजता, अपनी सुंदर शाम
लौट रही कालेज से भरे सुनहरे ख्वाब
वक्त खड़ा था राह में लेकर वह तेजाब
बर्बरता करती रही, पूरी रात प्रयोग
चीख-चीख लडकी थकी, उठे न सोये लोग
और न प्रतिबंधित करो, इक लड़की के ख्वाब
हो जाती है बाँध से, एक नदी तालाब
हर औरत की ज़िंदगी, एक बड़ा कोलाज
इसमें सब मिल जाएँगे, मैं-तुम, देश, समाज
उसको वह सब कुछ दिया,जो था उसे पसंद
लेकिन पिंजरे में रखा उसको करके बंद
जुल्म सहे पीडा। सहे, औरत बेआवाज़
फिर घर के घर में रखे,जालिम के सब राज़
आयेगी माँ आयगी,पुत्र न हो मायूस
तू बस थोड़ी देर तो,और अँगूठा चूस
व्यापारी अब कर रहे, राजनीति से मेल
हरे पेड़ पर ही चढ़े, अमरबेल की बेल
दुनिया में सबसे अलग, है अपनी तस्वीर
यहाँ गरीबों के लिए, लड़ते मिले अमीर
किससे कब कैसे मिले इसका रखे हिसाब
वो रखता है साथ में पंद्रह बीस नकाब