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मेरे घर फिर आज डाकिया / गीत गुंजन / रंजना वर्मा

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मेरे घर फिर आज डाकिया खिड़की से खत डाल गया है।
मत पेटी में जैसे कोई चुपके से मत डाल गया है॥

मौसम ने लिख भेजी शायद
व्यथा कथा सूनी डाली की।
खुशबू से बहते सपनों की ,
बीते दिन सी हरियाली की।

एक इशारा आवारा भँवरों की बाबत डाल गया है।
मेरे घर फिर आज डाकिया खिड़की से खत डाल गया है॥

लिक्खा होगा इंद्रधनुष
झूले पर झूल न कोई पाता ,
चढ़ा नहीं पाता प्रत्यंचा
फिर भी भूल न कोई पाता।

उम्मीदों के बिखरे पन्ने जैसी किस्मत डाल गया है।
मेरे घर फिर आज डाकिया खिड़की से खत डाल गया है॥

शायद इस खत में वर्षों की
विकल प्रतीक्षा का उत्तर हो ,
इसमें शायद हारे मन के
लिए आस का भी अक्षर हो।

बरसो रही प्रतीक्षा जिसकी क्या वह नेमत डाल गया है।
मेरे घर फिर आज डाकिया खिड़की से खत डाल गया है॥

शायद इस खत में भाभी का
शुभ आमंत्रण झाँक रहा है ,
या अनसुलझी किसी पहेली का
कौतूहल आँक रहा है।

कोई किसी और पर अपने सिर की सांसत डाल गया है।
मेरे घर फिर आज डाकिया खिड़की से खत डाल गया है॥

बड़े प्यार से लिखी हुई
अम्मा की है या कोई चिट्ठी।
भेजी है बाबा ने शायद
खेतों से चुटकी भर मिट्टी।

स्नेह गंध से रचा-बसा रिश्तो का अक्षत डाल गया है।
मेरे घर फिर आज डाकिया खिड़की से खत डाल गया है॥