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बयार बहे बहरी / कुमार वीरेन्द्र

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घर के तो घर के

गाँव-पड़ोसवाले भी
हाथ रँग में चभोए, लुकाए पीठ पीछे, ई रुई-से
पाँव लपकाते गँवँ से अँकवारी में, दबोचे भौजाई, बेजड़ नितान्त कसमसाती रह
गई, छुड़ा नहीं पाई, और मूरत-सी सुुघर सूरत, रँगों की पुताई से, कुमकुम-कुसुम
उगता सूरज-डूबता चाँद, रचाई गई बीचोबीच आँगन, ननद हँसती रही
देवर चिढ़ाता रहा, सास-ससुर छुअन-देखन में, अपनी
झुर्रियों पर तरस खाते रहे, गुज़रा ज़माना
गुदगुदाता रहा, ऐसे-ऐसे

लो फिर आए, दो-चार नौछँटिए छोरे

नखे-नख बाल्टी में
खाँटी गोबर-माटी का गाढ़ा घोल भरे, ई उलट दिए
सीधे सिर पर, पाँक में लेटाई भैंस-सी भौजाई की चुनरी-अँगिया हल्दी-उबटन, अँग-अँग लदर
फदर, बैठी थी रसोई में पकवान बनाने, बुझा चूल्हा, खाक हुआ पूड़ी-ठेकुआ, होली है, मनाही
करे कैसे, जब आपन बलमा भी, रँगलहरी, रसगँगा, रँगरसिया, तान-तान चलाए
नयनवा से चोख तीर, अब देखो कलयुग चहके, किस डाल केे पात
हँसी-ठिठोली के उत्पात, तरह-तरह रह-रह, ननद
देवर फुसला रहे, भतीजा माई को रँग
अबीर लगा आए, और

तोतला ई टुब-टुब बोलते, दुलकते दौड़ा

गाल में छुआ ही आया
पर माई भौजाई नहीं, सो मुस्कुराई, ननदिया छिनार, देवरा
मउगमेहरा सम्बोधित कर, लाज छुपाई, किरिया पचाई, अघाई, टरकाया, लाडले को खेलने, बीत
गया इसी में, तन-मन से खेलते-खेलाते होली पहर-भर, भौजाई चूल्हे से उठ टकसी नहीं नहान के
लिए, यूँ लदर-फदर रह लेगी, एक पहर और लुढ़कने तक, थक तो गई होगी, तँग आके
क्या घर छोड़ेगी, नाहीं, होली है होली बुढ़ऊ जवान जिससे, बुढ़िया
तूफ़ान मेल गड़िया, जाँत के रख रही है सब, कल
के आवन में, और सहला रही है, जिसका
समय अभी पूरा नहीं

वह गर्भ-शिशु ठीक तो है

हो-हो, हा-हा करते
गुबारे उड़ाता कारवाँ, गाँव-भर की छोरियाँ घुसीं
तपाक से, ई छाप लिया मधुमक्खी-सी, भूत बना छोड़ा, ईंट के भट्ठे से झाँकती, नेउरी
दिख रही भौजाई, सरक गई तो कस ली चुनरी, टूट गई पायल हो गई उघारे पाँव, ऐसे
में किसको ख़बर, अँगनाई एहवाती साड़ी में हुलस रही है कैसे, दरो-दीवार
का अन्दाज़े-बयाँ सोलहो-सिंगार की सुर-साधना में कैसे, कैसे
रँग-अबीर-माटी सँगत में मूर्त, अरे ओ भाई
अपनी वीरता के लिए तस्वीर
मत खींचना

यह घर है किसी का

यह क्या, पाँच-दस और
आए जो आए, ई गोलबन्द हो, रँग में चभ-चभ गोतने
लगे भौजाई, उधर कोने में, गुलाल-काजू-बादाम, लगाने-खिलाने के बहाने, घुमा-फिरा रहे, मुँह
हाथ साथ-साथ, एक तो ताड़ी-दारू से चूर, ऊपर से ऐसा मदस्पर्श हज़ूर, होली है इसलिए सब
चलाऊ, लेकिन क्या इतना, आग सुलगने लगे, थूकने को करे मन, झाड़ू से मारने की
जगे इच्छा, ऐसे होली खेलनेवालों को, परेशान हो चली है भौजाई
सहन की हद नहीं अब, क़सम खाती है, मुँह
मराने जाएँ, ऐसे परब-त्योहार
अगले बरस

नहीं खेलेगी होली !