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घड़ा / अरुण देव
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घड़ा पानी में भर देता है अपना स्वाद
गर्मियों में खींच कर उसकी तपिश
कुम्हार मिट्टी को चाक पर तराश कर बनाता है उसे
आग तपा कर उसे मज़बूत करती है
जल को वह इस तरह धारण करे कि
उसके महीन रन्ध्रों से होकर आती रहे हवा
जल डोलता रहे
हिलता रहे
और बना रहे मृदु
कुम्भ जल को क़ैद नहीं करता कि दम घुट जाए
जल न तपता है
न पड़ जाता है शव की तरह ठण्डा
करोड़ो वर्ष पूर्व की अपनी स्मृतियों के साथ
जैसे ख़ुद वह एक जीवन हो
उसकी बून्दों से ही बनी हैं कोशिकाएँ
फूट कर तन के कुम्भ का जल भले ही जल में समा जाता हो
टूट कर घड़ा फिर जी उठता है
जल के लिए ।