भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कभी कभी / रणजीत

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:04, 18 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रणजीत |अनुवादक= |संग्रह=बिगड़ती ह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी कभी मैं सोचता हूँ
कि काश तुम होती किसी दूसरे की बीवी
जैसा कि हमने सोच ही लिया था एक बार
अपनी शादी से पहले
लगभग निश्चय ही कर लिया था
एक बार तो
होती किसी दूसरे की
और मिलती बड़ी मुश्किल से
कभी कभी बरसों तक तरसाने के बाद
सुख का बादल ही फट पड़ता तब तो
चाहे बहा ले जाता वह हमें
क्षत-विक्षत अंगों के साथ
किसी बरसाती नदी में।
काश तुम किसी दूसरे की बीवी होंती
तो क्या छोटी-छोटी बातों पर इस तरह
बहस करती मुझसे?
क्या तुम्हें फुरसत होती
चुराये हुए उन थोड़े से पलों में
मुझसे झगड़ने की?
क्या ऐसी फुरसत थी तुम्हें शादी से पहले?
सारी ख़ुराफ़ात की जड़ तो यह शादी ही है
जो बना देती है दोनों को
एक-दूसरे का एकाधिकारी पहरेदार
टेढ़ी कर देती है एक की भृकुटियाँ
दूसरे को किसी से मुस्कुरा कर बतियाते देख कर भी।
काश तुम होती स़िर्फ मेरी प्रेयसी
जैसी थीं बरसों पहले
ठीक है, न होती यह जमी हुई गिरस्ती
यह फ्लैट, यह कार
ये अपने कामों में डूबे हुए बच्चे
काश तुम होतीं किसी दूसरे ...
या न होतीं किसी की भी
रहतीं अपने घर में अकेली
पहले की तरह
शायद कभी-कभार ही आता मैं तुम्हारे पास
और खिलातीं तुम मुझे बादाम का हलवा
जो अब भी खिला तो देती हो कभी कभी
पर तभी जब आने वाला होता है
कोई विशिष्ट मेहमान
या कभी अपने बच्चों या उनके बच्चों की
होती है बरसगांठ।
काश...