हिन्दी समय सागर में / रणजीत
कितना अच्छा लगता है जब
हिन्दी समय सागर में
लगातार प्रवहमान
‘र’ की फेरी में आमोद यात्रा करते हुए
पाता हूँ खुद को।
वाह ! कितना भाग्यशाली हूँ
कि उसी फेरी में बैठा हूँ
जिसमें बैठे हैं, थोड़ी ही दूर पर
मेरे प्यारे पुरखे रहीम और रसखान भी
और कुर्सियों की दो पाँतें छोड़कर
तीसरी में ही विराजमान हैं
रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी
और सब लिए हैं अपने साथ
अपनी-अपनी किताबें भी।
वाह ! मज़ा आ गया गया
ले सकता हूँ किसी के भी हाथ से
उसकी कोई किताब
और पढ़ सकता हूँ उसे
जब चाहूँ । देखो तो
राजिन्दरसिंह बेदी, रामवृक्ष बेनीपुरी
और राही मासूम रज़ा भी बैठे हैं पास ही की पंक्ति में।
अरे, मैंने तो ध्यान ही नहीं दिया
मेरी अपनी पंक्ति में
मेरे पुराने दोस्त रमेश बक्षी और रमेश उपाध्याय के बाद
कुछ सीटें छोड़कर आसीन है रांगेय राघव
रामदरश मिश्र, डॉ. लोहिया और राहुल जी भी
लहरों के झपाटे ज़रा कम हों
तो अपनी कुर्सी से उठूँ
और उन्हें प्रणाम कर के आऊँ
और माँग लाऊँ उनसे
उनकी कोई नहीं पढ़ी हुई किताब।
खुशकिस्मत हूँ कि हूँ उनका सहयात्री।
कितना सुखद है कि मैं जब चाहूँ
बात कर सकता हूँ पास में खड़े होकर
रसीदजहां आपा से
रामचन्द्र शुक्ल जी से
और उनके पास बैठे दिनकर जी से भी
शुक्रगुज़ार हूँ तुम्हारा
महात्मा गाँधी हिन्दी विश्वविद्यालय
और दोस्त राजकिशोर
कि तुमने इतने बड़े-बड़े लोगों के साथ
सफ़र करने का मौका दिया मुझे
हिन्दी समय सागर के
एक ही जहाज में।