भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सप्तपदी के वचन / अंजना टंडन
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:22, 19 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अंजना टंडन |अनुवादक= }} {{KKCatKavita}} <poem> जा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जानती हूँ
सप्तपदी पर लिए
सातवें वचन का मान,
बामअंग आने से पूर्व ही
मिली थी नियमावली
जिसमें विकल्प नहीं होते,
’’पर पुरूष देखना भी पाप था’’
बस ध्यान ही तब गया जब
किसी ने
काले और सफेद का झूठ ढूँढ निकाला,
मालूम नहीं
ये दुस्साहस था या परमार्थ
उकेर कर रख दी थी उसने
मुझ जैसी
कई दारूण गाथाएँ अदब के पन्नों पर,
पर सच मानो
मैंने कभी नहीं देखा
उसका चेहरा मोहरा
सिवाय शाब्दिक झलक के,
संवेदनशील सह्रदय मित्र सा लगा
और
स्त्री समझ दुख साझा कर लिया,
वास्तव में
वो कोई पर पुरूष नहीं
मेरे ही ईश का कोई टुकड़ा निकला,
स्त्रियाँ जानती हैं
वचनों का मान क्या होता है
हाँ....मैंने सच में नहीं देखा।