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अस्मिता की तलाश / कर्मानंद आर्य

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शब्दों की प्रासंगिकता बनी रहती है
कभी वे पहाड़ बनकर
बैठ जाते हैं सीने पर
कभी कपोलों पर जम आते हैं
ख़ुशी की बूंद बन
कभी वे आसमान की लम्बी चादर ओढ़
पिताओं का आशीर्वाद बन आते हैं
कभी वे यादों का नीलकंठ
वे छितराई हुई धरती पर
कभी उतरते हैं
कभी चढ़ते हैं
चूहा दौड़ करते हैं, गिलहरी याद लाते हैं
ग्यानी उन्हें विमर्श कह देते हैं
अज्ञानी अस्मिता
फिर शब्दों की जड़ें खोजी जाने लगती हैं
बच्चे के होंठों पर
खोजे जाने लगते हैं कठुयाये बीज
वे रक्त चन्दन हो आते हैं
कोयले के बीच खिलता है रक्त पलास
कभी वे विश्वास होते हैं
कभी बगावत
कभी जंगल की आग हो जाते हैं वे
कभी बौराए हाथी
हमारे हिस्से में शब्द आये
इतिहास में उसके अर्थ अलग थे
हमारे हिस्से में गाँव आये
इतिहास में उनके अर्थ अलग थे
हमारे व्यवसाय को को जो नाम दिया गया
वे घृणा से सराबोर थे
कईयों ने दलित कहा
कईयों ने अछूत
उनके शब्द प्रमाण थे जो कहा मान लिया
हमारे शब्द हमारे होंठों में दबे हुए
अस्मिता की तलाश कर रहे हैं सदियों से
हमारे शब्द अभी किताबों में नहीं है
हमारे भाव अभी लिखे जाने हैं