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प्रतिरोध / महेन्द्र भटनागर
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विकास-राह रुद्ध ;
जाति-युद्ध।
वंश-दर्प
बन गया कराल काल-सर्प।
दंश
तीव्र दंश,
सृष्टि के महान् जीव का
अथाह भ्रंश।
क्षुद्र संकुचित हृदय
उगल रहा ज़हर
कि ढा रहा क़हर !
मनुष्यता लहू-लुहान,
जातुधान गा रहा —
असार द्वेष-युक्त
जाति-गान।
क्रूर
गर्व-चूर,
सभ्यता-विहीन
आत्म-लीन ।
बढ़ो, बढ़ो !
पशुत्व के अधीन
इस मनुष्य के
उगे विषाण
और धारदार दाँत
तोड़ने !
अमानवीय
जात-पाँत तोड़ने,
समाज और व्यक्ति को
सशक्त एक सूत्रा में
अटूट जोड़ने।