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शाश्वत / कर्मानंद आर्य

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ओ मेरे नाविक
मैं कैसे भूल जाऊँ
कुछ दिनों पहले मैं
नदी थी

तुम्हारे हाव-भाव
कितने थे किशोर, और
मैं चंचल थी

आज भी मैं, कैद नहीं हूँ
ताकि, तुम छू न सको
अपलक नेह

रह-रह पीर उठती है
मैं भी,
तुम्हारे साथ-साथ बही हूँ बहुत दूर
ताकि,
खोया कल मिल सके