देवा / मंगेश पाडगाँवकर / अनिल कुमार
मैंने देखे काँच के सन्त
भूस की आत्मा भरे हुए,
नींद की शब्द गोलियों के प्रसिद्ध ठेकेदार
रेशमी पहनकर प्रवचन करते हुए,
सामुदायिक विस्मृति उगाने वाली आध्यात्मिक वाणी
अमुकानन्द, तमुकाचार्य, फलाँशास्त्री ।
मैंने देखी उनकी आध्यात्मिक सभा में
सुख का डायरिया भोग रही तुन्दिल औरतें,
बच्चा न हो सकने के कारण दीन बनी बाइयाँ,
महाबलेश्वर के आलीशान होटल में
कम्पनी के एक्सपेन्स अकाउण्ट में
स्टेनो के साथ भाड़े पर सोने वाला कर्तव्यनिष्ठ एक्जिक्युटिव,
उँगली के नाख़ून लगातार कुतरनेवाला कारकून
पाँच पीढ़ियों की हीनता का कूबड़ निकला हुआ,
रिक्त भयभीतों के भी भक्तिधुन्द समूह
हरेक के हाथों में, भक्त सटोरिया सेठजी द्वारा
छापकर फोकट में बाँटे गए अमुकानन्द के आध्यात्मिक प्रवचन ।
मैं बचपन में दादी से पूछा करता था —
दादी, देवा कैसा होता है?
धकधक जलते चूल्हे पर भाकरी ठोकते हुए
कहा करती थी मेरी अशिक्षित दादी —
तू पेट भर जीमता है मंगेश तो देवा पा लेती हूँ ।