भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नासदीय सूक्त, ऋग्वेद - 10 / 129 / 2 / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
Kumar mukul (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:21, 22 मई 2019 का अवतरण
ओह घरी
मउअत ना रहे
अमरतो ना रहे
रात आउर दिन के
भेदो ना रहे
बिना हवा के शून्य में
ओह घरि
बस बरहम रहन
ओकर अलावे
केहू
कहीं ना रहे ॥2॥
न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।
अनीद वातं स्वधया तदेकं तस्मादधान्यन्न पर किं च नास ॥2॥