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चुपके चुपके बहार गुज़री है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

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चुपके चुपके बहार गुज़री है
हमको कर दर किनार गुज़री है।

मुंह छुपाये हुए घटाओं से
चांदनी बेक़रार गुज़री है।

एक दहशत पहाड़ से उतरी
बन के फिर आशबार गुज़री है।

ये भी कैसी है खून की वहशत
सर पे हो कर सवार गुज़री है।

बात छोटी सी थी मगर शायद
उनको कुछ नागवार गुज़री है।

उनकी मुझ पर निगाह रुक-रुक कर
साजिशन किश्तवार गुज़री है।

सच में 'विश्वास' ज़िन्दगी अपनी
जितनी गुज़री उधर गुज़री है।