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तय किया ज़ात का सफ़र कितना / सुरेश चन्द्र शौक़
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तय किया ज़ात का सफ़र कितना
फिर भी हूँ ख़ुद से बे-ख़बर कितना
जी में जो आया वो किया मैंने
यह न सोचा हुआ ज़रर कितना
हर तरफ़ आइने तआक़ुब में
ख़ुद से भागे कोई मगर कितना
ख़ूने-दिल से शजर को सींचा था
तल्ख़ निकला मगर समर कितना
शाद हूँ , मुत्मुइन हूँ , साबिर हूँ
चाहिए और मुझको ज़र कितना
अब वो दिल है न रौनकें दिल की
कभी आबाद था था यह घर कितना
‘शौक़’! हर बात की खअबर है उसे
वैसे बनता है बेख़बर कितना.
ज़ात=निज ; ज़रर=हानि ; तआक़ुब= पीछा करना; समर= फल; मुत्मुइन=संतुष्ट ; ज़र= स्वर्ण; साबिर=धैर्यवान.