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दांत मनईं मन पीसें कक्कू / महेश कटारे सुगम

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दांत मनईं मन पीसें कक्कू
कैवे जावें की सें कक्कू

कैसें पढ़वें मौड़ा मोड़ी
रोज़ बढ़ा रये फीसें कक्कू

दारें<ref>दालें</ref> तौ दाखें हो गईं हैं
उतरी सब्ज़ी जी सें कक्कू

साँप बनाकेँ हमें डरा रये
करिया<ref>काली</ref> एक धजी<ref>चिन्दी</ref> सें कक्कू

मौ सें निकरत गारी,गुल्ला
नईं रै गईं आशीषें कक्कू

एक सकुलिया<ref>छोटा पात्र</ref> में झारत हैं
रात दिना जब पीसें कक्कू

माँग ,चूँग कें कैसें चलहै
कब तक ईसें,ऊसें कक्कू

चिन्ता मन में ऐसी बैठी
निकरत नईंयाँ जी सें कक्कू

तुम कै रये हौ फ़िकर नईं करौ
खाओ गकरिया<ref>बाटी</ref> घी सें कक्कू

शब्दार्थ
<references/>