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मुक्ति / कुमार विकल

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ऐ देश!

मैं अपनी मुक्ति की कविता

तुम्हें समर्पित करता हूँ.

तुमने ही मुझे दी थी—

मुक्ति की एक जादुई छड़ी

जो वक़्त के साथ—

एक दिन मेरी पैंट में अड़ी!

घर गया तो फटी पैंट देख

बिगड़ उठी लुगाई

(उस वक़्त,फटी पैंट के बारे में

एक कहावत की याद आई)


उपर से आफ़त यह हुई

कि रात भर बारिश आई

और सारा घर ढूँढने पर भी मिली न कोई रज़ाई.

ठिठुरती रात में—

बिना रज़ाई के,रामधुन ही काम आई

और उस रात—

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की बहुत—बहुत याद आई.

तब से मैंने छोड़ दिया घर-बार

छोड़ दी लुगाई,

नहीं, मुझे नहीं चाहिए कोई रज़ाइ.

अब रोटी कपड़ा मकान की मेरी कोई समस्या नहीं

मुझे तो मिल गई है एक नई ख़ुदाई.

अब देश की एक शानदार इमारत—

नाम योजना -भवन में रहता हूँ

न पीता हूँ ,न खाता हूँ

मज़े से आँकड़ों के चने चबाता हूँ.


मैं अपनी आँखें राष्ट्रीय नेत्र-कोष को दे आया हूँ

अब रामधुन गाता हूँ

और अंतर्दृष्टि से—

योजनाएँ चरने वाली, अपनी प्रिय बकरी का भविष्य देखता हूँ

जिसका दूध मुझे साठ करोड़ लोगों को पिलाना है.