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पिछले साल से / असद ज़ैदी

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|| 3/24 प्रेम वाटिका ||

“मुस्कुराते क्यों हो?” तुमने कहा, “यह घर
प्रेम ही से चला है अब तक ।”

“अभी तुम मिले देखा कितनी सुन्दर बहू है मेरी
वफ़ादार बेटा और इतना प्यारा सा इनका बच्चा…
और फिर मैं भी यहाँ हूँ जैसा तुमने कहा —
निश्चिन्त, प्रसन्न और सम्पन्न दिखती विधवा !”

मैंने घूमकर उसका घर देखा इतने बरस बाद
दो दालान, उन में फलते-फूलते मोगरे, अनार,
हरसिंगार, मौलसरी, कचनार, करौन्दा, अमरूद,
गुड़हल, हरदम गदराई मधुमालती…

“क्या बिना प्रेम के इतना सब हो सकता है ?”

मैंने पता नहीं किस धुन में कहा — बिल्कुल हो सकता है, सीमा !
बिल्कुल हो सकता है…

क्या तुमने ज़ालिमों के बाग़ीचे नहीं देखे…
उनकी चहल-पहल भरी हवेलियाँ
जिनमें सदा हँसी गूँजा करती थी…
अलबत्ता नियति ने जहाँ अब अपार्टमेण्ट बना दिए हैं ।

“हूँ…”, उसने कहा, “और तुम्हें क्या-क्या याद है ?”

मैंने कहा, कुछ नहीं, इतना याद है तुम स्कूल में सिर्फ़
एक दरजा मुझसे आगे थीं, पर रौब के साथ ‘ए जूनियर’ कहकर
मुझको तलब किया करती थीं ।

“हूँ…”, कहकर उसने पूछा, “अपने स्कूल का क्या हाल है ?”

ठीक ही चलता लगता है — मैंने कहा — उसके चारों तरफ़
बस्तियाँ बस गई हैं, पर स्कूल का परिसर बचा हुआ है, और हाँ,
पाकड़ का पेड़ अभी भी वहीं खड़ा है, मैदान के किनारे पर ।
बच्चों से अब वहाँ रोज़ वन्दे मातरम् गवाया जाता है…

“हूँ… और तुम्हारे मालवीय नगर के क्या हाल हैं ?”

तुम्हारी ये “हूँ…” की आदत अभी तक गई नहीं, सीमा !

“ऐसा नहीं है, लड़के, बस तुम्हें देखकर लौट आई है ।”

और हम हंसने लगे चालीस साल लाँघ कर,
हंसते-हंसते लगभग निर्वाण की दहलीज़ तक जा पहुँचे ।

रही मालवीय नगर की बात सो क्या कहूँ…
जैसा भारत मालवीय जी चाहते थे वहाँ बसा हुआ है ।

29.1.2018